कोरोना में मजदूर

चला वो राही बनकर मंजिल उसकी अपना घर था,
 फैली थी महामारी देश में पर वो अब  निडर था

 पर ना नाँव थी पास उसके रास्ता एक समुंदर था,
 सच कह रहा हूं , हाँ वो घर से इतना दूर था

 बिन सावन बारिश के जैसे सरकार से बस ऐसी आस थी,
 साधन से पहुंचे घर वो भी पर, वो कीमत ना उसके पास थी

याद करता वो दिन राह में, आँगन में बैठाकर खाना खिलाती ज़ब बेटियां थी,
थककर बैठता जलती पटरियों पर, खाने को बस सुखी रोटियाँ थी

शाम ढली तो कुछ पल के लिए उसे शुकुन मिला,
पर संभाले ज़ब पैर उसने, दर्द और कुछ खून मिला

दिन भर चला वो और अब भी चलने को मजबूर था,
लिखते भी काँप रही है कलम मेरी की वो इस देश का मजदूर था

कुछ दूर चला वो पर शरीर  उसका बेसुध हो गया,
सोचकर की ना आयी दिनभर में रेल, और पटरियों पर ही सो गया

पर कायनात ने थी साजिश रची उसे बस उसके सोने का ही इंतजार था,
ना संभल सका वो उससे जो ज़िन्दगी आखिरी वार था

चीथड़े सब बिखर गए जो कभी उसकी अमानत थी
रूह भी उसकी रो पड़ी देखकर की रोटियाँ अब भी सलामत थी...
   
                             ~शज़र (Rajat Rajpurohit)

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