बेज़ुबान की आवाज
दे अगर भगवान जुबान इस बेज़ुबान को, पूछेगा वो कुछ सवाल हर एक इंसान को, कि वफ़ादारी निभाने में कसर कोई छोड़ी नहीं, पर उम्मीद तुमसे थी नहीं, कि इस कदर चुकाओगे तुम हमारे अहसान को, कि घर हमारे छीन लिए, पिंजरों में भी कैद किया, जंजीर भी बँधी है पैर से, बताओ हमने क्या जुर्म किया, सुबह से शाम तक हमने तुम्हारा साथ दिया, पर थी क्या दुश्मनी हमसे, जो खाने में बारूद दिया, समझ हम सके नहीं तुम्हारे इस व्यवहार को, खाने को कुछ देते नहीं, तो पत्थर क्यों मारते हो लाचार को, अब अपनी असलियत को तुम इंटरनेट से छिपाओगे, दया दिखाने के लिए स्टेटस भी तुम लगाओगे, पर इतिहास तुम्हारा है गवाह, पिछली घटनाओं की तरह इसको भी भूल जाओगे आधुनिकता के काल में, क्यों खाने से प्रहार किया, गलती तो बताओ उसकी, क्यों बच्चे सहित मार दिया, नासमझ वो माँ थी जिसने पहचाना नहीं इंसान को, क्यों स्वार्थ में डूबकर बेरहम तुम बनते हो, दे अगर भगवान जुबान इस बेज़ुबान को, पूछेगा वो यही सवाल हर एक इंसान को... ...