दुष्यंत कुमार की प्रसिद्ध कविताएं

कविताओं की list 👇
  1. नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं / दुष्यंत कुमार
  2. एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है / दुष्यंत कुमार
  3. तुलना / दुष्यंत कुमार
  4. मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे / दुष्यंत कुमार
  5. एक आशीर्वाद / दुष्यंत कुमार
  6. लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है / दुष्यंत कुमार
  7. आग जलती रहे / दुष्यंत कुमार
  8. इनसे मिलिए / दुष्यंत कुमार
  9. आज वीरान अपना घर देखा / दुष्यंत कुमार
  10. इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है / दुष्यंत कुमार
  11. वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है / दुष्यंत कुमार
  12. मापदण्ड बदलो / दुष्यंत कुमार
  13. गीत का जन्म / दुष्यंत कुमार
  14. टेपा सम्मेलन के लिए ग़ज़ल / दुष्यन्त कुमार
  15. ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ / दुष्यंत कुमार
  16. धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है / दुष्यंत कुमार
  17. ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है / दुष्यंत कुमार
  18. सूचना / दुष्यंत कुमार
  19. होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये / दुष्यंत कुमार
  20. मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ / दुष्यंत कुमार
  21. तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए / दुष्यंत कुमार
  22. तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया / दुष्यंत कुमार
  23. वो निगाहें सलीब है / दुष्यंत कुमार
  24. लफ़्ज़ एहसास—से छाने लगे, ये तो हद है / दुष्यंत कुमार
  25. अपाहिज व्यथा / दुष्यंत कुमार
  26. एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा / दुष्यंत कुमार
  27. कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये / दुष्यंत कुमार
  28. होली की ठिठोली / दुष्यंत कुमार
  29. अब तो पथ यही है / दुष्यंत कुमार
  30. रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है / दुष्यंत कुमार
  31. अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार / दुष्यंत कुमार
  32. उसे क्या कहूँ / दुष्यंत कुमार
  33. प्रेरणा के नाम / दुष्यंत 
  34. तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं / दुष्यंत कुमार
  35. हालाते-जिस्म, सूरते—जाँ और भी ख़राब / दुष्यंत कुमार
  36. अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला / दुष्यंत कुमार
  37. ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती / दुष्यंत कुमार
  38. बाएँ से उड़के दाईं दिशा को गरुड़ गया / दुष्यंत कुमार
  39. ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो / दुष्यंत कुमार
  40. किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम / दुष्यंत कुमार
  41. आज सडकों पर / दुष्यंत कुमार
  42. बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई / दुष्यंत कुमार
  43. पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं / दुष्यंत कुमार
  44. इस मोड़ से तुम मुड़ गई / दुष्यंत कुमार
  45. मेरी कुण्ठा / दुष्यंत कुमार
  46. सूना घर / दुष्यंत कुमार
  47. धर्म / दुष्यंत कुमार
  48. ये शफ़क़ शाम हो रही है अब / दुष्यंत कुमार
  49. यह क्यों / दुष्यंत कुमार
  50. तीन दोस्त / दुष्यंत कुमार
  51. हो गई है पीर पर्वत / दुष्यंत कुमार
  52. घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है / दुष्यंत कुमार
  53. सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन / दुष्यंत कुमार
  54. गांधीजी के जन्मदिन पर / दुष्यंत कुमार
  55. कौन यहाँ आया था / दुष्यंत कुमार
  56. चीथड़े में हिन्दुस्तान / दुष्यंत कुमार
  57. दो पोज़ / दुष्यंत कुमार
  58. प्रेरणा के नाम / दुष्यंत कुमार
  59. हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब / दुष्यंत कुमार
  60. विदा के बाद प्रतीक्षा / दुष्यंत कुमार
  61. ईश्वर को सूली / दुष्यंत कुमार
  62. अनुभव-दान / दुष्यंत कुमार
  63. तुमको निहरता हूँ सुबह से ऋतम्बरा / दुष्यंत कुमार
  64. देश / दुष्यंत कुमार
  65. समय / दुष्यंत कुमार
  66. ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए / दुष्यंत कुमार
  67. अपनी प्रेमिका से / दुष्यंत कुमार
  68. सत्य बतलाना / दुष्यंत कुमार
  69. बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं / दुष्यंत कुमार
  70. चिंता / दुष्यंत कुमार
  71. जाने किस—किसका ख़्याल आया है / दुष्यंत कुमार
  72. कुंठा / दुष्यंत कुमार
  73. पुनर्स्मरण / दुष्यंत कुमार
  74. फिर कर लेने दो प्यार प्रिये / दुष्यंत कुमार

नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं / दुष्यंत कुमार

नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं
जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं

वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है
मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं

यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन
ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं

चले हवा तो किवाड़ों को बंद कर लेना
ये गरम राख़ शरारों में ढल न जाए कहीं

तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है
तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं

कभी मचान पे चढ़ने की आरज़ू उभरी
कभी ये डर कि ये सीढ़ी फिसल न जाए कहीं

ये लोग होमो-हवन में यकीन रखते है
चलो यहां से चलें, हाथ जल न जाए कहीं







एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है / दुष्यंत कुमार


एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है

आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है


ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए

यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है


एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो—

इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है


मस्लहत—आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम

तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है


इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके

जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है


कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए

मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है


मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ

हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है




तुलना / दुष्यंत कुमार


गडरिए कितने सुखी हैं ।

न वे ऊँचे दावे करते हैं
न उनको ले कर
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
जबकि
जनता की सेवा करने के भूखे
सारे दल भेडियों से टूटते हैं ।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं
जैसे कुछ नहीं हुआ है
और सब कुछ हो जाएगा ।

जबकि
सारे दल
पानी की तरह धन बहाते हैं,
गडरिए मेंड़ों पर बैठे मुस्कुराते हैं
... भेडों को बाड़े में करने के लिए
न सभाएँ आयोजित करते हैं
            न रैलियाँ,
न कंठ खरीदते हैं, न हथेलियाँ,
न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर
आश्वासनों का सूर्य उगाते हैं,
स्वेच्छा से
जिधर चाहते हैं, उधर
भेड़ों को हाँके लिए जाते हैं ।

गडरिए कितने सुखी हैं ।




मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे / दुष्यंत कुमार


मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे
इस बूढ़े पीपल की छाया में सुस्ताने आएँगे

हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेड़ो मत
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे

थोड़ी आँच बची रहने दो थोडा धुआँ निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफ़िर आएँगे

उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आए तो यहाँ शँख सीपियाँ उठाने आएँगे

फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आएँगे

रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढ़े तो शायद दृश्य सुहाने आएँगे

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे

हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौन्दे टूट गए
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएँगे

हम इतिहास नहीं रच पाए इस पीड़ा में दहते हैं
अब जो धारायें पकड़ेंगे इसी मुहाने आएँगे





एक आशीर्वाद / दुष्यंत कुमार


जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।

चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।

हँसें
मुस्कुराएँ
गाएँ।

हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलाएँ।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।





लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है / दुष्यंत कुमार


लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है
लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है

आप दीवार गिराने के लिए आए थे
आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है

ख़ामुशी शोर से सुनते थे कि घबराती है
ख़ामुशी शोर मचाने लगे, ये तो हद है

आदमी होंठ चबाए तो समझ आता है
आदमी छाल चबाने लगे, ये तो हद है

जिस्म पहरावों में छुप जाते थे, पहरावों में-
जिस्म नंगे नज़र आने लगे, ये तो हद है

लोग तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के सलीक़े सीखे
लोग रोते हुए गाने लगे, ये तो हद है








आग जलती रहे / दुष्यंत कुमार


एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुजरता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छूने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ
... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता
आग के संपर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से
एक चौथाई उमर
यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन-बन कर चुका,
रीता, भटकता
छानता आकाश
आह! कैसा कठिन
... कैसा पोच मेरा भाग!
आग चारों और मेरे
आग केवल भाग!
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।






अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए / दुष्यंत कुमार

अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए

तेरी सहर हो मेरा आफ़ताब हो जाए


हुज़ूर! आरिज़ो-ओ-रुख़सार क्या तमाम बदन

मेरी सुनो तो मुजस्सिम गुलाब हो जाए


उठा के फेंक दो खिड़की से साग़र-ओ-मीना

ये तिशनगी जो तुम्हें दस्तयाब हो जाए


वो बात कितनी भली है जो आप करते हैं

सुनो तो सीने की धड़कन रबाब हो जाए


बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा

ये आरज़ू भी अगर कामयाब हो जाए


ग़लत कहूँ तो मेरी आक़बत बिगड़ती है

जो सच कहूँ तो ख़ुदी बेनक़ाब हो जाए.








मुक्तक / दुष्यंत कुमार

१)
सँभल सँभल के’ बहुत पाँव धर रहा हूँ मैं
पहाड़ी ढाल से जैसे उतर रहा हूँ मैं
क़दम क़दम पे मुझे टोकता है दिल ऐसे
गुनाह कोई बड़ा जैसे कर रहा हूँ मैं।

(२)
तरस रहा है मन फूलों की नई गंध पाने को
खिली धूप में, खुली हवा में, गाने मुसकाने को
तुम अपने जिस तिमिरपाश में मुझको क़ैद किए हो
वह बंधन ही उकसाता है बाहर आ जाने को।

(३)
गीत गाकर चेतना को वर दिया मैंने
आँसुओं से दर्द को आदर दिया मैंने
प्रीत मेरी आत्मा की भूख थी, सहकर
ज़िंदगी का चित्र पूरा कर दिया मैंने

(४)
जो कुछ भी दिया अनश्वर दिया मुझे
नीचे से ऊपर तक भर दिया मुझे
ये स्वर सकुचाते हैं लेकिन तुमने
अपने तक ही सीमित कर दिया मुझे।

शब्दार्थ :
तिमिरपाश = अंधेरे का बंधन






इनसे मिलिए / दुष्यंत कुमार


पाँवों से सिर तक जैसे एक जनून
बेतरतीबी से बढ़े हुए नाख़ून

कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दाग़िल पाँव
जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव

टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस
पिण्डलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस

कुछ ऐसे लगते हैं घुटनों के जोड़
जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़

गट्टों-सी जंघाएँ निष्प्राण मलीन
कटि, रीतिकाल की सुधियों से भी क्षीण

छाती के नाम महज़ हड्डी दस-बीस
जिस पर गिन-चुन कर बाल खड़े इक्कीस

पुट्ठे हों जैसे सूख गए अमरूद
चुकता करते-करते जीवन का सूद

बाँहें ढीली-ढाली ज्यों टूटी डाल
अँगुलियाँ जैसे सूखी हुई पुआल

छोटी-सी गरदन रंग बेहद बदरंग
हरवक़्त पसीने का बदबू का संग

पिचकी अमियों से गाल लटे से कान
आँखें जैसे तरकश के खुट्टल बान

माथे पर चिन्ताओं का एक समूह
भौंहों पर बैठी हरदम यम की रूह

तिनकों से उड़ते रहने वाले बाल
विद्युत परिचालित मखनातीसी चाल

बैठे तो फिर घण्टों जाते हैं बीत
सोचते प्यार की रीत भविष्य अतीत

कितने अजीब हैं इनके भी व्यापार
इनसे मिलिए ये हैं दुष्यन्त कुमार ।








आज वीरान अपना घर देखा / दुष्यंत कुमार


आज वीरान अपना घर देखा

तो कई बार झाँक कर देखा


पाँव टूटे हुए नज़र आये

एक ठहरा हुआ सफ़र देखा


होश में आ गए कई सपने

आज हमने वो खँडहर देखा


रास्ता काट कर गई बिल्ली

प्यार से रास्ता अगर देखा


नालियों में हयात देखी है

गालियों में बड़ा असर देखा


उस परिंदे को चोट आई तो

आपने एक-एक पर देखा


हम खड़े थे कि ये ज़मीं होगी

चल पड़ी तो इधर-उधर देखा.












इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है / दुष्यंत कुमार


इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।









वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है / दुष्यंत कुमार


वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है

माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है


वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू

मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है


सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर

झोले में उसके पास कोई संविधान है


उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप

वो आदमी नया है मगर सावधान है


फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए

हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है


देखे हैं हमने दौर कई अब ख़बर नहीं

पैरों तले ज़मीन है या आसमान है


वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से

ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेज़ुबान है









मापदण्ड बदलो / दुष्यंत कुमार


मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते-सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।

अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
मेरे बाज़ू टूट गए,
मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,
तो मुझे पराजित मत मानना,
समझना –
तब और भी बड़े पैमाने पर
मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,
मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ
एक बार और
शक्ति आज़माने को
धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को
मचल रही होंगी ।
एक और अवसर की प्रतीक्षा में
मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।

ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं ।
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
क़सम देती हैं ।
कुछ हो अब, तय है –
मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जगाते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है –
जिनमें मैं हार चुका हूँ ।

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।








गीत का जन्म / दुष्यंत कुमार


एक अन्धकार बरसाती रात में
बर्फ़ीले दर्रों-सी ठंडी स्थितियों में
अनायास दूध की मासूम झलक सा
हंसता, किलकारियां भरता
एक गीत जन्मा
और
देह में उष्मा
स्थिति संदर्भॊं में रोशनी बिखेरता
सूने आकाशों में गूंज उठा :
-बच्चे की तरह मेरी उंगली पकड़ कर
मुझे सूरज के सामने ला खड़ा किया ।

यह गीत
जो आज
चहचहाता है
अन्तर्वासी अहम से भी स्वागत पाता है
नदी के किनारे या लावारिस सड़कों पर
नि:स्वन मैदानों में
या कि बन्द कमरों में
जहां कहीं भी जाता है
मरे हुए सपने सजाता है-
-बहुत दिनों तड़पा था अपने जनम के लिये ।










टेपा सम्मेलन के लिए ग़ज़ल / दुष्यन्त कुमार


याद आता है कि मैं हूँ शंकरन या मंकरन
आप रुकिेए फ़ाइलों में देख आता हूँ मैं

हैं ये चिंतामन अगर तो हैं ये नामों में भ्रमित
इनको दारु की ज़रूरत है ये बतलाता हूँ मैं

मार खाने की तबियत हो तो भट्टाचार्य की
गुलगुली चेहरा उधारी मांग कर लाता हूँ मैं

इनका चेहरा है कि हुक्का है कि है गोबर-गणेश
किस कदर संजीदगी यह सबको समझाता हूँ मैं

उस नई कविता पे मरती ही नहीं हैं लड़कियाँ
इसलिये इस अखाड़े में नित गज़ल गाता हूँ मैं

कौन कहता है निगम को और शिव को आदमी
ये बड़े शैतान मच्छर हैं ये समझाता हूँ मैं

ये सुमन उज्जैन का है इसमें खुशबू तक नहीं
दिल फ़िदा है इसकी बदबू पर कसम खाता हूँ मैं

इससे ज्यादा फ़ितरती इससे हरामी आदमी
हो न हो दुनिया में पर उज्जैन में पाता हूँ मैं

पूछते हैं आप मुझसे उसका हुलिया, उसका हाल
भगवती शर्मा को करके फ़ोन बुलवाता हूँ मैं

वो अवंतीलाल अब धरती पे चलता ही नहीं
एक गुटवारे-सी उसकी शख़्सियत पाता हूँ मैं

सबसे ज़्यादा कीमती चमचा हूँ मैं सरकार का
नाम है मेरा बसंती, राव कहलाता हूँ मैं

प्यार से चाहे शरद की मार लो हर एक गोट
वैसे वो शतरंज का माहिर है, बतलाता हूँ मैं











ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ / दुष्यंत कुमार


ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ

मुझे किस क़दर नया है, मैं जो दर्द सह रहा हूँ


ये ज़मीन तप रही थी ये मकान तप रहे थे

तेरा इंतज़ार था जो मैं इसी जगह रहा हूँ


मैं ठिठक गया था लेकिन तेरे साथ—साथ था मैं

तू अगर नदी हुई तो मैं तेरी सतह रहा हूँ


तेरे सर पे धूप आई तो दरख़्त बन गया मैं

तेरी ज़िन्दगी में अक्सर मैं कोई वजह रहा हूँ


कभी दिल में आरज़ू—सा, कभी मुँह में बद्दुआ—सा

मुझे जिस तरह भी चाहा, मैं उसी तरह रहा हूँ


मेरे दिल पे हाथ रक्खो, मेरी बेबसी को समझो

मैं इधर से बन रहा हूँ, मैं इधर से ढह रहा हूँ


यहाँ कौन देखता है, यहाँ कौन सोचता है

कि ये बात क्या हुई है,जो मैं शे’र कह रहा हूँ












धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है / दुष्यंत कुमार


धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है

एक छाया सीढ़ियाँ चढ़ती—उतरती है


यह दिया चौरास्ते का ओट में ले लो

आज आँधी गाँव से हो कर गुज़रती है


कुछ बहुत गहरी दरारें पड़ गईं मन में

मीत अब यह मन नहीं है एक धरती है


कौन शासन से कहेगा, कौन पूछेगा

एक चिड़िया इन धमाकों से सिहरती है


मैं तुम्हें छू कर ज़रा—सा छेड़ देता हूँ

और गीली पाँखुरी से ओस झरती है


तुम कहीं पर झील हो मैं एक नौका हूँ

इस तरह की कल्पना मन में उभरती है








ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है / दुष्यंत कुमार


ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है / दुष्यंत कुमार
 दुष्यंत कुमार » साये में धूप »
ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है

एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है


राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर

इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है


आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है

हुस्न में अब जज़्बा—ए—अमज़द नहीं है


पेड़—पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे

रास्तों में एक भी बरगद नहीं है


मैकदे का रास्ता अब भी खुला है

सिर्फ़ आमद—रफ़्त ही ज़ायद नहीं


इस चमन को देख कर किसने कहा था

एक पंछी भी यहाँ शायद नहीं है.







सूचना / दुष्यंत कुमार


कल माँ ने यह कहा –-
कि उसकी शादी तय हो गई कहीं पर,
मैं मुसकाया वहाँ मौन
रो दिया किन्तु कमरे में आकर
जैसे दो दुनिया हों मुझको
मेरा कमरा औ' मेरा घर ।









होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये / दुष्यंत कुमार



होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये

इस पर कटे परिंदे की कोशिश तो देखिये


गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में

सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये


बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन

सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिये


उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें

चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये


जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ

इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिये












मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ / दुष्यंत कुमार

 
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ

एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ

तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ

एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ

मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ

कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ











तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए / दुष्यंत कुमार


तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए

छोटी—छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं


हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत

तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठा कर फेंक दीं


जाने कैसी उँगलियाँ हैं, जाने क्या अँदाज़ हैं

तुमने पत्तों को छुआ था जड़ हिला कर फेंक दी


इस अहाते के अँधेरे में धुआँ—सा भर गया

तुमने जलती लकड़ियाँ शायद बुझा कर फेंक दीं











तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया / दुष्यंत कुमार


तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया
पांवों की सब जमीन को फूलों से ढंक लिया

किससे कहें कि छत की मुंडेरों से गिर पड़े
हमने ही ख़ुद पतंग उड़ाई थी शौकिया

अब सब से पूछता हूं बताओ तो कौन था
वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया

मुँह को हथेलियों में छिपाने की बात है
हमने किसी अंगार को होंठों से से छू लिया

घर से चले तो राह में आकर ठिठक गये
पूरी हूई रदीफ़ अधूरा है काफ़िया

मैं भी तो अपनी बात लिखूं अपने हाथ से
मेरे सफ़े पे छोड़ दो थोड़ा सा हाशिया

इस दिल की बात कर तो सभी दर्द मत उंडेल
अब लोग टोकते है ग़ज़ल है कि मरसिया









वो निगाहें सलीब है / दुष्यंत कुमार

 
वो निगाहें सलीब है

हम बहुत बदनसीब हैं


आइये आँख मूँद लें

ये नज़ारे अजीब हैं


ज़िन्दगी एक खेत है

और साँसे जरीब हैं


सिलसिले ख़त्म हो गए

यार अब भी रक़ीब है


हम कहीं के नहीं रहे

घाट औ’ घर क़रीब हैं


आपने लौ छुई नहीं

आप कैसे अदीब हैं


उफ़ नहीं की उजड़ गए

लोग सचमुच ग़रीब हैं.











लफ़्ज़ एहसास—से छाने लगे, ये तो हद है / दुष्यंत कुमार


लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है
लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है

आप दीवार गिराने के लिए आए थे
आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है

ख़ामुशी शोर से सुनते थे कि घबराती है
ख़ामुशी शोर मचाने लगे, ये तो हद है

आदमी होंठ चबाए तो समझ आता है
आदमी छाल चबाने लगे, ये तो हद है

जिस्म पहरावों में छुप जाते थे, पहरावों में
जिस्म नंगे नज़र आने लगे, ये तो हद है

लोग तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के सलीक़े सीखें
लोग रोते हुए गाने लगे, ये तो हद है










अपाहिज व्यथा / दुष्यंत कुमार

 
अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।

ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।

अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।

वे सम्बन्ध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।

तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।

मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।

समालोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।











एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा / दुष्यंत कुमार


एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा

मौसम एक गुलेल लिये था पट—से नीचे आन गिरा


बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे काँटे तेज़ हवा

हमने घर बैठे—बैठे ही सारा मंज़र देख किया


चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गई पाँवों की

सोचो कितना बोझ उठा कर मैं इन राहों से गुज़रा


सहने को हो गया इकठ्ठा इतना सारा दुख मन में

कहने को हो गया कि देखो अब मैं तुझ को भूल गया


धीरे— धीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में

इनको क्या मालूम कि आगे चल कर इनका क्या होगा









कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये / दुष्यंत कुमार


कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये.

मयस्सर=उपलब्ध

मुतमईन=संतुष्ट

मुनासिब=ठीक









होली की ठिठोली / दुष्यंत कुमार

 
पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर ।
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर ।

अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया,
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर ।

कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका,
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर ।

शायर को सौ रुपए तो मिलें जब ग़ज़ल छपे,
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर ।

लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप,
शी! होंठ सिल के बैठ गए ,लीजिए हुजूर ।










अब तो पथ यही है / दुष्यंत कुमार

 
जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है|

अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार ,
अब तो पथ यही है |

क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है|

यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है,
यह पहाड़ी पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है,
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार,
अब तो पथ यही है |







रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है / दुष्यंत कुमार


रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है
यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है

कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए
वो घरौंदा ही सही, मिट्टी का भी घर होता है

सिर से सीने में कभी पेट से पाओं में कभी
इक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है

ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे
हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है

सैर के वास्ते सड़कों पे निकल आते थे
अब तो आकाश से पथराव का डर होता है










अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार / दुष्यंत कुमार


अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार

आप बच कर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं
रहगुज़र घेरे हुए मुर्दे खड़े हैं बेशुमार

रोज़ अखबारों में पढ़कर यह ख़्याल आया हमें
इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले—बहार

मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं
बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार

इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके—जुर्म हैं
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार

हालते—इन्सान पर बरहम न हों अहले—वतन
वो कहीं से ज़िन्दगी भी माँग लायेंगे उधार

रौनक़े-जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं
मैं जहन्नुम में बहुत ख़ुश था मेरे परवरदिगार

दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर
हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार










उसे क्या कहूँ / दुष्यंत कुमार


किन्तु जो तिमिर-पान
औ' ज्योति-दान
करता करता बह गया
उसे क्या कहूँ
कि वह सस्पन्द नहीं था ?

और जो मन की मूक कराह
ज़ख़्म की आह
कठिन निर्वाह
व्यक्त करता करता रह गया
उसे क्या कहूँ
गीत का छन्द नहीं था ?

पगों कि संज्ञा में है
गति का दृढ़ आभास,
किन्तु जो कभी नहीं चल सका
दीप सा कभी नहीं जल सका
कि यूँही खड़ा खड़ा ढह गया
उसे क्या कहूँ
जेल में बन्द नहीं था ?








प्रेरणा के नाम / दुष्यंत 


तुम्हें याद होगा प्रिय
जब तुमने आँख का इशारा किया था
तब
मैंने हवाओं की बागडोर मोड़ी थीं,
ख़ाक में मिलाया था पहाड़ों को,
शीष पर बनाया था एक नया आसमान,
जल के बहावों को मनचाही गति दी थी....,
किंतु--वह प्रताप और पौरुष तुम्हारा था--
मेरा तो नहीं था सिर्फ़!

जैसे बिजली का स्विच दबे
औ’ मशीन चल निकले,
वैसे ही मैं था बस,
मूक...विवश...,
कर्मशील इच्छा के सम्मुख
परिचालक थे जिसके तुम।

आज फिर हवाएँ प्रतिकूल चल निकली हैं,
शीष फिर उठाए हैं पहाड़ों ने,
बस्तियों की ओर रुख़ फिरा है बहावों का,
काला हुआ है व्योम,
किंतु मैं करूँ तो क्या?
मन करता है--उठूँ,
दिल बैठ जाता है,
पाँव चलते हैं
गति पास नहीं आती है,
तपती इस धरती पर
लगता है समय बहुत विश्वासघाती है,
हौंसले, मरीज़ों की तरह छटपटाते हैं,
सपने सफलता के
हाथ से कबूतरों की तरह उड़ जाते हैं
क्योंकि मैं अकेला हूँ
और परिचालक वे अँगुलियाँ नहीं हैं पास
जिनसे स्विच दबे
ज्योति फैले या मशीन चले।

आज ये पहाड़!
ये बहाव!
ये हवा!
ये गगन!
मुझको ही नहीं सिर्फ़
सबको चुनौती हैं,
उनको भी जगे हैं जो
सोए हुओं को भी--
और प्रिय तुमको भी
तुम जो अब बहुत दूर
बहुत दूर रहकर सताते हो!

नींद ने मेरी तुम्हें व्योम तक खोजा है
दृष्टि ने किया है अवगाहन कण कण में
कविताएँ मेरी वंदनवार हैं प्रतीक्षा की
अब तुम आ जाओ प्रिय
मेरी प्रतिष्ठा का तुम्हें हवाला है!

परवा नहीं है मुझे ऐसे मुहीमों की
शांत बैठ जाता बस--देखते रहना
फिर मैं अँधेरे पर ताक़त से वार करूँगा,
बहावों के सामने सीना तानूँगा,
आँधी की बागडोर
नामुराद हाथों में सौंपूँगा।
देखते रहना तुम,
मेरे शब्दों ने हार जाना नहीं सीखा
क्योंकि भावना इनकी माँ है,
इन्होंने बकरी का दूध नहीं पिया
ये दिल के उस कोने में जन्में हैं
जहाँ सिवाय दर्द के और कोई नहीं रहा।

कभी इन्हीं शब्दों ने
ज़िन्दा किया था मुझे
कितनी बढ़ी है इनकी शक्ति
अब देखूँगा
कितने मनुष्यों को और जिला सकते हैं?




तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं / दुष्यंत कुमार



तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं

तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं

तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं

तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर
तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं

बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ
ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं

ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं




हालाते-जिस्म, सूरते—जाँ और भी ख़राब / दुष्यंत कुमार


हालाते जिस्म, सूरती—जाँ और भी ख़राब

चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब


नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे

होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब


पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी

चिमनी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब


मूरत सँवारने से बिगड़ती चली गई

पहले से हो गया है जहाँ और भी ख़राब


रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं

अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब


आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम

राहों में रह गए हैं निशाँ और भी ख़राब


सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी

पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब









अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला / दुष्यंत कुमार



अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला
मैंने भी सुना है अब जाएगा तेरा डोला

इन राहों के पत्थर भी मानूस थे पाँवों से
पर मैंने पुकारा तो कोई भी नहीं बोला

लगता है ख़ुदाई में कुछ तेरा दख़ल भी है
इस बार फ़िज़ाओं ने वो रंग नहीं घोला

आख़िर तो अँधेरे की जागीर नहीं हूँ मैं
इस राख में पिन्हा है अब भी वही शोला

सोचा कि तू सोचेगी, तूने किसी शायर की
दस्तक तो सुनी थी पर दरवाज़ा नहीं खोला









ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती / दुष्यंत कुमार


ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती

ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती


इन सफ़ीलों में वो दरारे हैं

जिनमें बस कर नमी नहीं जाती


देखिए उस तरफ़ उजाला है

जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती


शाम कुछ पेड़ गिर गए वरना

बाम तक चाँदनी नहीं जाती


एक आदत-सी बन गई है तू

और आदत कभी नहीं जाती


मयकशो मय ज़रूर है लेकिन

इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती


मुझको ईसा बना दिया तुमने

अब शिकायत भी की नहीं जाती










बाएँ से उड़के दाईं दिशा को गरुड़ गया / दुष्यंत कुमार



बाएँ से उड़के दाईं दिशा को गरुड़ गया / दुष्यंत कुमार
 दुष्यंत कुमार » साये में धूप »
बाएँ से उड़के दाईं दिशा को गरुड़ गया

कैसा शगुन हुआ है कि बरगद उखड़ गया


इन खँडहरों में होंगी तेरी सिसकियाँ ज़रूर

इन खँडहरों की ओर सफ़र आप मुड़ गया


बच्चे छलाँग मार के आगे निकल गये

रेले में फँस के बाप बिचारा बिछुड़ गया


दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें

सुख तो किसी कपूर की टिकिया-सा उड़ गया


लेकर उमंग संग चले थे हँसी—खुशी

पहुँचे नदी के घाट तो मेला उजड़ गया


जिन आँसुओं का सीधा तअल्लुक़ था पेट से

उन आँसुओं के साथ तेरा नाम जुड़ गया.


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अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला

मैंने भी सुना है अब जाएगा तेरा डोला


इन राहों के पत्थर भी मानूस थे पाँवों से

पर मैंने पुकारा तो कोई भी नहीं बोला


लगता है ख़ुदाई में कुछ तेरा दख़ल भी है

इस बार फ़िज़ाओं ने वो रंग नहीं घोला


आख़िर तो अँधेरे की जागीर नहीं हूँ मैं

इस राख में पिन्हा है अब भी वही शोला


सोचा कि तू सोचेगी ,तूने किसी शायर की

दस्तक तो सुनी थी पर दरवाज़ा नहीं खोला.









ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो / दुष्यंत कुमार


ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो

दर्दे—दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा
इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो

लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो

आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो







किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम / दुष्यंत कुमार


किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम

किसी का हाथ उठ्ठा और अलकों तक चला आया


वो बरगश्ता थे कुछ हमसे उन्हें क्योंकर यक़ीं आता

चलो अच्छा हुआ एहसास पलकों तक चला आया


जो हमको ढूँढने निकला तो फिर वापस नहीं लौटा

तसव्वुर ऐसे ग़ैर—आबाद हलकों तक चला आया


लगन ऐसी खरी थी तीरगी आड़े नहीं आई

ये सपना सुब्ह के हल्के धुँधलकों तक चला आया







आज सडकों पर / दुष्यंत कुमार


आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख ।

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख ।

अब यकीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह,
यह हक़ीक़त देख लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख ।

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख ।

ये धुन्धलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख ।

राख़ कितनी राख़ है, चारों तरफ बिख़री हुई,
राख़ में चिनगारियाँ ही देख अंगारे न देख ।







बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई / दुष्यंत कुमार



बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई

सड़क पे फेंक दी तो ज़िंदगी निहाल हुई


बड़ा लगाव है इस मोड़ को निगाहों से

कि सबसे पहले यहीं रौशनी हलाल हुई


कोई निजात की सूरत नहीं रही, न सही

मगर निजात की कोशिश तो एक मिसाल हुई


मेरे ज़ेह्न पे ज़माने का वो दबाब पड़ा

जो एक स्लेट थी वो ज़िंदगी सवाल हुई


समुद्र और उठा, और उठा, और उठा

किसी के वास्ते ये चाँदनी वबाल हुई


उन्हें पता भी नहीं है कि उनके पाँवों से

वो ख़ूँ बहा है कि ये गर्द भी गुलाल हुई


मेरी ज़ुबान से निकली तो सिर्फ़ नज़्म बनी

तुम्हारे हाथ में आई तो एक मशाल हुई








पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं / दुष्यंत कुमार


पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं

इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो
धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं

बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और है
ऐसी बारिश की कभी उनको ख़बर होगी नहीं

आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है
पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं

आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर
आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं

सिर्फ़ शायर देखता है क़हक़हों की अस्लियत
हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं







इस मोड़ से तुम मुड़ गई / दुष्यंत कुमार



इस मोड़ से तुम मुड़ गई फिर राह सूनी हो गई।

मालूम था मुझको कि हर धारा नदी होती नहीं
हर वृक्ष की हर शाख फूलों से लदी होती नहीं
फिर भी लगा जब तक क़दम आगे बढ़ाऊँगा नहीं,
कैसे कटेगा रास्ता यदि गुनगुनाऊँगा नहीं,
यह सोचकर सारा सफ़र, मैं इस क़दर धीरे चला
लेकिन तुम्हारे साथ फिर रफ़्तार दूनी हो गई!

तुमसे नहीं कोई गिला, हाँ, मन बहुत संतप्त है,
हर एक आँचल प्यार देने को नहीं अभिशप्त है,
हर एक की करुणा यहाँ पर काव्य की थाती नहीं
हर एक की पीड़ा यहाँ संगीत बन पाती नहीं
मैंने बहुत चाहा कि अपने आँसुओं को सोख लूँ
तड़पन मगर उस बार से इस बार दूनी हो गई।

जाने यहाँ, इस राह के, इस मोड़ पर है क्या वजह
हर स्वप्न टूटा इस जगह, हर साथ छूटा इस जगह
इस बार मेरी कल्पना ने फिर वही सपने बुने,
इस बार भी मैंने वही कलियाँ चुनी, काँटे चुने,
मैंने तो बड़ी उम्मीद से तेरी तरफ देखा मगर
जो लग रही थी ज़िन्दगी दुश्वार दूनी हो गई!

इस मोड़ से तुम मुड़ गई, फिर राह सूनी हो गई!









मेरी कुण्ठा / दुष्यंत कुमार

 
मेरी कुंठा
रेशम के कीड़ों सी
ताने-बाने बुनती
तड़प-तड़पकर
बाहर आने को सिर धुनती,
स्वर से
शब्दों से
भावों से
औ' वीणा से कहती-सुनती,
गर्भवती है
मेरी कुंठा – कुँवारी कुंती!

बाहर आने दूँ
तो लोक-लाज-मर्यादा
भीतर रहने दूँ
तो घुटन, सहन से ज़्यादा,
मेरा यह व्यक्तित्व
सिमटने पर आमादा ।








सूना घर / दुष्यंत कुमार


सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।

पहले तो लगा कि अब आईं तुम, आकर
अब हँसी की लहरें काँपी दीवारों पर
खिड़कियाँ खुलीं अब लिये किसी आनन को।

पर कोई आया गया न कोई बोला
खुद मैंने ही घर का दरवाजा खोला
आदतवश आवाजें दीं सूनेपन को।

फिर घर की खामोशी भर आई मन में
चूड़ियाँ खनकती नहीं कहीं आँगन में
उच्छ्वास छोड़कर ताका शून्य गगन को।

पूरा घर अँधियारा, गुमसुम साए हैं
कमरे के कोने पास खिसक आए हैं
सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।








धर्म / दुष्यंत कुमार


तेज़ी से एक दर्द
मन में जागा
मैंने पी लिया,
छोटी सी एक ख़ुशी
अधरों में आई
मैंने उसको फैला दिया,
मुझको सन्तोष हुआ
और लगा –-
हर छोटे को
बड़ा करना धर्म है ।







ये शफ़क़ शाम हो रही है अब / दुष्यंत कुमार



ये शफ़क़ शाम हो रही है अब

और हर गाम हो रही है अब


जिस तबाही से लोग बचते थे

वो सरे आम हो रही है अब


अज़मते—मुल्क इस सियासत के

हाथ नीलाम हो रही है अब


शब ग़नीमत थी, लोग कहते हैं

सुब्ह बदनाम हो रही है अब


जो किरन थी किसी दरीचे की

मरक़ज़े बाम हो रही है अब


तिश्ना—लब तेरी फुसफुसाहट भी

एक पैग़ाम हो रही है अब









यह क्यों / दुष्यंत कुमार



हर उभरी नस मलने का अभ्यास
रुक रुककर चलने का अभ्यास
छाया में थमने की आदत
यह क्यों ?

जब देखो दिल में एक जलन
उल्टे उल्टे से चाल-चलन
सिर से पाँवों तक क्षत-विक्षत
यह क्यों ?

जीवन के दर्शन पर दिन-रात
पण्डित विद्वानों जैसी बात
लेकिन मूर्खों जैसी हरकत
यह क्यों ?







तीन दोस्त / दुष्यंत कुमार


सब बियाबान, सुनसान अँधेरी राहों में
खंदकों खाइयों में
रेगिस्तानों में, चीख कराहों में
उजड़ी गलियों में
थकी हुई सड़कों में, टूटी बाहों में
हर गिर जाने की जगह
बिखर जाने की आशंकाओं में
लोहे की सख्त शिलाओं से
दृढ़ औ’ गतिमय
हम तीन दोस्त
रोशनी जगाते हुए अँधेरी राहों पर
संगीत बिछाते हुए उदास कराहों पर
प्रेरणा-स्नेह उन निर्बल टूटी बाहों पर
विजयी होने को सारी आशंकाओं पर
पगडंडी गढ़ते
आगे बढ़ते जाते हैं
हम तीन दोस्त पाँवों में गति-सत्वर बाँधे
आँखों में मंजिल का विश्वास अमर बाँधे।
X X X X
हम तीन दोस्त
आत्मा के जैसे तीन रूप,
अविभाज्य--भिन्न।
ठंडी, सम, अथवा गर्म धूप--
ये त्रय प्रतीक
जीवन जीवन का स्तर भेदकर
एकरूपता को सटीक कर देते हैं।
हम झुकते हैं
रुकते हैं चुकते हैं लेकिन
हर हालत में उत्तर पर उत्तर देते हैं।
X X X X
हम बंद पड़े तालों से डरते नहीं कभी
असफलताओं पर गुस्सा करते नहीं कभी
लेकिन विपदाओं में घिर जाने वालों को
आधे पथ से वापस फिर जाने वालों को
हम अपना यौवन अपनी बाँहें देते हैं
हम अपनी साँसें और निगाहें देते हैं
देखें--जो तम के अंधड़ में गिर जाते हैं
वे सबसे पहले दिन के दर्शन पाते हैं।
देखें--जिनकी किस्मत पर किस्मत रोती है
मंज़िल भी आख़िरकार उन्हीं की होती है।
X X X X
जिस जगह भूलकर गीत न आया करते हैं
उस जगह बैठ हम तीनों गाया करते हैं
देने के लिए सहारा गिरने वालों को
सूने पथ पर आवारा फिरने वालों को
हम अपने शब्दों में समझाया करते हैं
स्वर-संकेतों से उन्हें बताया करते हैं--
‘तुम आज अगर रोते हो तो कल गा लोगे
तुम बोझ उठाते हो, तूफ़ान उठा लोगे
पहचानो धरती करवट बदला करती है
देखो कि तुम्हारे पाँव तले भी धरती है।’
X X X X
हम तीन दोस्त इस धरती के संरक्षण में
हम तीन दोस्त जीवित मिट्टी के कण कण में
हर उस पथ पर मौजूद जहाँ पग चलते हैं
तम भाग रहा दे पीठ दीप-नव जलते हैं
आँसू केवल हमदर्दी में ही ढलते हैं
सपने अनगिन निर्माण लिए ही पलते हैं।

हम हर उस जगह जहाँ पर मानव रोता है
अत्याचारों का नंगा नर्तन होता है
आस्तीनों को ऊपर कर निज मुट्ठी ताने
बेधड़क चले जाते हैं लड़ने मर जाने
हम जो दरार पड़ चुकी साँस से सीते हैं
ये बाग़ बुज़ुर्गों ने आँसू औ’ श्रम देकर
पाले से रक्षा कर पाला है ग़म देकर
हर साल कोई इसकी भी फ़सलें ले खरीद
कोई लकड़ी, कोई पत्तों का हो मुरीद
किस तरह गवारा हो सकता है यह हमको
ये फ़सल नहीं बिक सकती है निश्चय समझो।
...हम देख रहे हैं चिड़ियों की लोलुप पाँखें
इस ओर लगीं बच्चों की वे अनगिन आँखें
जिनको रस अब तक मिला नहीं है एक बार
जिनका बस अब तक चला नहीं है एक बार
हम उनको कभी निराश नहीं होने देंगे
जो होता आया अब न कभी होने देंगे।
X X X X
ओ नई चेतना की प्रतिमाओं, धीर धरो
दिन दूर नहीं है वह कि लक्ष्य तक पहुँचेंगे
स्वर भू से लेकर आसमान तक गूँजेगा
सूखी गलियों में रस के सोते फूटेंगे।

हम अपने लाल रक्त को पिघला रहे और
यह लाली धीरे धीरे बढ़ती जाएगी
मानव की मूर्ति अभी निर्मित जो कालिख से
इस लाली की परतों में मढ़ती जाएगी
यह मौन
शीघ्र ही टूटेगा
जो उबल उबल सा पड़ता है मन के भीतर
वह फूटेगा,
आता ही निशि के बाद
सुबह का गायक है,
तुम अपनी सब सुंदर अनुभूति सँजो रक्खो
वह बीज उगेगा ही
जो उगने लायक़ है।
X X X X
हम तीन बीज
उगने के लिए पड़े हैं हर चौराहे पर
जाने कब वर्षा हो कब अंकुर फूट पड़े,
हम तीन दोस्त घुटते हैं केवल इसीलिए
इस ऊब घुटन से जाने कब सुर फूट पड़े ।







हो गई है पीर पर्वत / दुष्यंत कुमार

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए..










घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है / दुष्यंत कुमार


घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुँचती है
एक नदी जैसे दहानों तक पहुँचती है

अब इसे क्या नाम दें, ये बेल देखो तो
कल उगी थी आज शानों तक पहुँचती है

खिड़कियां, नाचीज़ गलियों से मुख़ातिब है
अब लपट शायद मकानों तक पहुँचती है

आशियाने को सजाओ तो समझ लेना,
बरक कैसे आशियानों तक पहुँचती है

तुम हमेशा बदहवासी में गुज़रते हो,
बात अपनों से बिगानों तक पहुँचती है

सिर्फ़ आंखें ही बची हैं चँद चेहरों में
बेज़ुबां सूरत, जुबानों तक पहुँचती है

अब मुअज़न की सदाएं कौन सुनता है
चीख़-चिल्लाहट अज़ानों तक पहुँचती है







सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन / दुष्यंत कुमार

सूरज जब
किरणों के बीज-रत्न
धरती के प्रांगण में
बोकर
हारा-थका
स्वेद-युक्त
रक्त-वदन
सिन्धु के किनारे
निज थकन मिटाने को
नए गीत पाने को
आया,
तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया,
ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप
और शान्त हो रहा।

लज्जा से अरुण हुई
तरुण दिशाओं ने
आवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यह!
क्रोध से हिमालय के वंश-वर्त्तियों ने
मुख-लाल कुछ उठाया
फिर मौन सिर झुकाया
ज्यों – 'क्या मतलब?'
एक बार सहमी
ले कम्पन, रोमांच वायु
फिर गति से बही
जैसे कुछ नहीं हुआ!

मैं तटस्थ था, लेकिन
ईश्वर की शपथ!
सूरज के साथ
हृदय डूब गया मेरा।
अनगिन क्षणों तक
स्तब्ध खड़ा रहा वहीं
क्षुब्ध हृदय लिए।
औ' मैं स्वयं डूबने को था
स्वयं डूब जाता मैं
यदि मुझको विश्वास यह न होता –-
'मैं कल फिर देखूँगा यही सूर्य
ज्योति-किरणों से भरा-पूरा
धरती के उर्वर-अनुर्वर प्रांगण को
जोतता-बोता हुआ,
हँसता, ख़ुश होता हुआ।'

ईश्वर की शपथ!
इस अँधेरे में
उसी सूरज के दर्शन के लिए
जी रहा हूँ मैं
कल से अब तक!







गांधीजी के जन्मदिन पर / दुष्यंत कुमार

 
मैं फिर जनम लूंगा
फिर मैं
इसी जगह आउंगा
उचटती निगाहों की भीड़ में
अभावों के बीच
लोगों की क्षत-विक्षत पीठ सहलाऊँगा
लँगड़ाकर चलते हुए पावों को
कंधा दूँगा
गिरी हुई पद-मर्दित पराजित विवशता को
बाँहों में उठाऊँगा ।

इस समूह में
इन अनगिनत अचीन्ही आवाज़ों में
कैसा दर्द है
कोई नहीं सुनता !
पर इन आवाजों को
और इन कराहों को
दुनिया सुने मैं ये चाहूँगा ।

मेरी तो आदत है
रोशनी जहाँ भी हो
उसे खोज लाऊँगा
कातरता, चु्प्पी या चीखें,
या हारे हुओं की खीज
जहाँ भी मिलेगी
उन्हें प्यार के सितार पर बजाऊँगा ।

जीवन ने कई बार उकसाकर
मुझे अनुलंघ्य सागरों में फेंका है
अगन-भट्ठियों में झोंका है,
मैने वहाँ भी
ज्योति की मशाल प्राप्त करने के यत्न किये
बचने के नहीं,
तो क्या इन टटकी बंदूकों से डर जाऊँगा ?
तुम मुझकों दोषी ठहराओ
मैने तुम्हारे सुनसान का गला घोंटा है
पर मैं गाऊँगा
चाहे इस प्रार्थना सभा में
तुम सब मुझपर गोलियाँ चलाओ
मैं मर जाऊँगा
लेकिन मैं कल फिर जनम लूँगा
कल फिर आऊँगा ।











कौन यहाँ आया था / दुष्यंत कुमार


कौन यहाँ आया था
कौन दिया बाल गया
सूनी घर-देहरी में
ज्योति-सी उजाल गया

पूजा की बेदी पर
गंगाजल भरा कलश
रक्खा था, पर झुक कर
कोई कौतुहलवश
बच्चों की तरह हाथ
डाल कर खंगाल गया

आँखों में तिरा आया
सारा आकाश सहज
नए रंग रँगा थका-
हारा आकाश सहज
पूरा अस्तित्व एक
गेंद-सा उछाल गया

अधरों में राग, आग
अनमनी दिशाओं में
पार्श्व में, प्रसंगों में
व्यक्ति में, विधाओं में
साँस में, शिराओं में
पारा-सा ढाल गया|




चीथड़े में हिन्दुस्तान / दुष्यंत कुमार


एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है,
आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है।

ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए,
यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है।

एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो,
इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है।

मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम,
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है।

इस कदर पाबंदी-ए-मज़हब की सदके आपके
जब से आज़ादी मिली है, मुल्क में रमजान है।

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है।

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।






दो पोज़ / दुष्यंत कुमार


सद्यस्नात[1] तुम
जब आती हो
मुख कुन्तलों[2] से ढँका रहता है
बहुत बुरे लगते हैं वे क्षण जब
राहू से चाँद ग्रसा रहता है ।

पर जब तुम
केश झटक देती हो अनायास
तारों-सी बूँदें
बिखर जाती हैं आसपास
मुक्त हो जाता है चाँद
तब बहुत भला लगता है ।







प्रेरणा के नाम / दुष्यंत कुमार

 
तुम्हें याद होगा प्रिय
जब तुमने आँख का इशारा किया था
तब
मैंने हवाओं की बागडोर मोड़ी थीं,
ख़ाक में मिलाया था पहाड़ों को,
शीष पर बनाया था एक नया आसमान,
जल के बहावों को मनचाही गति दी थी....,
किंतु--वह प्रताप और पौरुष तुम्हारा था--
मेरा तो नहीं था सिर्फ़!

जैसे बिजली का स्विच दबे
औ’ मशीन चल निकले,
वैसे ही मैं था बस,
मूक...विवश...,
कर्मशील इच्छा के सम्मुख
परिचालक थे जिसके तुम।

आज फिर हवाएँ प्रतिकूल चल निकली हैं,
शीष फिर उठाए हैं पहाड़ों ने,
बस्तियों की ओर रुख़ फिरा है बहावों का,
काला हुआ है व्योम,
किंतु मैं करूँ तो क्या?
मन करता है--उठूँ,
दिल बैठ जाता है,
पाँव चलते हैं
गति पास नहीं आती है,
तपती इस धरती पर
लगता है समय बहुत विश्वासघाती है,
हौंसले, मरीज़ों की तरह छटपटाते हैं,
सपने सफलता के
हाथ से कबूतरों की तरह उड़ जाते हैं
क्योंकि मैं अकेला हूँ
और परिचालक वे अँगुलियाँ नहीं हैं पास
जिनसे स्विच दबे
ज्योति फैले या मशीन चले।

आज ये पहाड़!
ये बहाव!
ये हवा!
ये गगन!
मुझको ही नहीं सिर्फ़
सबको चुनौती हैं,
उनको भी जगे हैं जो
सोए हुओं को भी--
और प्रिय तुमको भी
तुम जो अब बहुत दूर
बहुत दूर रहकर सताते हो!

नींद ने मेरी तुम्हें व्योम तक खोजा है
दृष्टि ने किया है अवगाहन कण कण में
कविताएँ मेरी वंदनवार हैं प्रतीक्षा की
अब तुम आ जाओ प्रिय
मेरी प्रतिष्ठा का तुम्हें हवाला है!

परवा नहीं है मुझे ऐसे मुहीमों की
शांत बैठ जाता बस--देखते रहना
फिर मैं अँधेरे पर ताक़त से वार करूँगा,
बहावों के सामने सीना तानूँगा,
आँधी की बागडोर
नामुराद हाथों में सौंपूँगा
देखते रहना तुम,
मेरे शब्दों ने हार जाना नहीं सीखा
क्योंकि भावना इनकी माँ है,
इन्होंने बकरी का दूध नहीं पिया
ये दिल के उस कोने में जन्में हैं
जहाँ सिवाय दर्द के और कोई नहीं रहा।

कभी इन्हीं शब्दों ने
ज़िन्दा किया था मुझे
कितनी बढ़ी है इनकी शक्ति
अब देखूँगा
कितने मनुष्यों को और जिला सकते हैं?






हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब / दुष्यंत कुमार


हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब
चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब

नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे
होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब

पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी
चिमनी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब

मूरत सँवारने से बिगड़ती चली गई
पहले से हो गया है जहाँ और भी ख़राब

रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब

आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम
राहों में रह गए हैं निशाँ और भी ख़राब

सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी
पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब







विदा के बाद प्रतीक्षा / दुष्यंत कुमार


परदे हटाकर करीने से
रोशनदान खोलकर
कमरे का फर्नीचर सजाकर
और स्वागत के शब्दों को तोलकर
टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ
और देखता रहता हूँ मैं।

सड़कों पर धूप चिलचिलाती है
चिड़िया तक दिखायी नही देती
पिघले तारकोल में
हवा तक चिपक जाती है बहती बहती,
किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से
एक शब्द नही कहता हूँ मैं।

सिर्फ़ कल्पनाओं से
सूखी और बंजर ज़मीन को खरोंचता हूँ
जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में
उनके बारे में सोचता हूँ
कितनी अजीब बात है कि आज भी
प्रतीक्षा सहता हूँ।







ईश्वर को सूली / दुष्यंत कुमार


मैंने चाहा था
कि चुप रहूँ,
देखता जाऊँ
जो कुछ मेरे इर्द-गिर्द हो रहा है।
मेरी देह में कस रहा है जो साँप
उसे सहलाते हुए,
झेल लूँ थोड़ा-सा संकट
जो सिर्फ कडुवाहट बो रहा है।
कल तक गोलियों की आवाज़ें कानों में बस जाएँगी,
अच्छी लगने लगेंगी,
सूख जाएगा सड़कों पर जमा हुआ खून !
वर्षा के बाद कम हो जाएगा
लोगों का जुनून !
धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।
लेकिन मैंने देखा--
धीरे-धीरे सब ग़लत होता जाता है ।
इच्छा हुई मैं न बोलूँ
मेरा उस राजा से या उसकी अंध भक्त प्रजा से
क्या नाता है?

लेकिन सहसा एक व्याख्यातीत अंधेरा
ढक लेता है मेरा जीवित चेहरा,
और भीतर से कुछ बाहर आने के लिए छटपटाता है ।
एक उप महाद्वीपीय संवेदना
सैलाब-सी उमड़ती है-अंदर ही अंदर
कहीं से उस लाश पर
अविश्वास-सी प्रखर,
सीधी रोशनी पड़ती है-
क्षत-विक्षत लाश के पास,
बैठे हैं असंख्य मुर्दे उदास ।
और गोलियों के ज़ख्म देह पर नहीं हैँ।
रक्तस्राव अस्थिमज्जा से नहीं हो रहा है ।
एक काग़ज़ का नक्शा है-
ख़ून छोड़ता हुआ ।
एक पागल निरंकुश श्वान
बौखलाया-सा फिरता है उसके पास
शव चिचोड़ता हुआ
ईश्वर उस 'आदिवासी-ईश्वर' पर रहम करे!
सता के लंबे नाखूनों ने जिसका जिस्म नोच लिया!
घुटनों पर झुका हुआ भक्त
अब क्या
इस निरंकुशता को माथा टेकेगा
जिसने-
भक्तों के साथ प्रभु को सूली पर चढ़ा दिया,
समाचार-पत्रों की भाषा बदल दी,
न्याय को राजनीति की शकल दी,
और हर विरोधी के हाथों में
एक-एक खाली बंदूक पकड़ा दी-
कि वह-
लगातार घोड़ा दबाता रहे,
जनता की नहीं, सिर्फ़ राजा की,
मुर्दे पैग़म्बर की मौत पर सभाएँ बुलाता रहे
'दिवस' मनाता हुआ,
सार्वजनिक आँसू बहाता हुआ,
नींद को जगाता हुआ,
अर्द्ध-सत्य थामे चिल्लाता रहे।







अनुभव-दान / दुष्यंत कुमार


खँडहरों सी भावशून्य आँखें
नभ से किसी नियंता की बाट जोहती हैं।
बीमार बच्चों से सपने उचाट हैं;
टूटी हुई जिंदगी
आँगन में दीवार से पीठ लगाए खड़ी है;
कटी हुई पतंगों से हम सब
छत की मुँडेरों पर पड़े हैं।"

बस! बस!! बहुत सुन लिया है।
नया नहीं है ये सब मैंने भी किया है।
अब वे दिन चले गए,
बालबुद्धि के वे कच्चे दिन भले गए।
आज हँसी आती है!

व्यक्ति को आँखों में
क़ैद कर लेने की आदत पर,
रूप को बाहों में भर लेने की कल्पना पर,
हँसने-रोने की बातों पर,
पिछली बातों पर,
आज हँसी आती है!

तुम सबकी ऐसी बातें सुनने पर
रुई के तकियों में सिर धुनने पर,
अपने हृदयों को भग्न घोषित कर देने की आदत पर,
गीतों से कापियाँ भर देने की आदत पर,
आज हँसी आती है!

इस सबसे दर्द अगर मिटता
तो रुई का भाव तेज हो जाता।
तकियों के गिलाफ़ों को कपड़े नहीं मिलते।
भग्न हृदयों की दवा दर्जी सिलते।
गीतों से गलियाँ ठस जातीं।

लेकिन,
कहाँ वह उदासी अभी मिट पाई!
गलियों में सूनापन अब भी पहरा देता है,
पर अभी वह घड़ी कहाँ आई!

चाँद को देखकर काँपो
तारों से घबराओ
भला कहीं यूँ भी दर्द घटता है!
मन की कमज़ोरी में बहकर
खड़े खड़े गिर जाओ
खुली हवा में न आओ
भला कहीं यूँ भी पथ कटता है!

झुकी हुई पीठ,
टूटी हुई बाहों वाले बालक-बालिकाओं सुनो!
खुली हवा में खेलो।
चाँद को चमकने दो, हँसने दो
देखो तो
ज्योति के धब्बों को मिलाती हुई
रेखा आ रही है,
कलियों में नए नए रंग खिल रहे हैं,
भौरों ने नए गीत छेड़े हैं,
आग बाग-बागीचे, गलियाँ खूबसूरत हैं।
उठो तुम भी
हँसी की क़ीमत पहचानो
हवाएँ निराश न लौटें।

उदास बालक बालिकाओं सुनो!
समय के सामने सीना तानो,
झुकी हुई पीठ
टूटी हुई बाहों वाले बालकों आओ
मेरी बात मानो।







तुमको निहरता हूँ सुबह से ऋतम्बरा / दुष्यंत कुमार


तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा
अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा

ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा—डरा

पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है
मेरी नज़र में अब भी चमन है हरा—भरा

लम्बी सुरंग-से है तेरी ज़िन्दगी तो बोल
मैं जिस जगह खड़ा हूँ वहाँ है कोई सिरा

माथे पे हाथ रख के बहुत सोचते हो तुम
गंगा क़सम बताओ हमें कया है माजरा






देश / दुष्यंत कुमार


संस्कारों की अरगनी पर टंगा
एक फटा हुआ बुरका
कितना प्यारा नाम है उसका-देश,
जो मुझको गंध
और अर्थ
और कविता का कोई भी
शब्द नहीं देता
सिर्फ़ एक वहशत,
एक आशंका
और पागलपन के साथ,
पौरुष पर डाल दिया जाता है,
ढंकने को पेट, पीठ, छाती और माथा।






समय / दुष्यंत कुमार

 
नहीं!
अभी रहने दो!
अभी यह पुकार मत उठाओ!
नगर ऐसे नहीं हैं शून्य! शब्दहीन!
भूला भटका कोई स्वर
अब भी उठता है--आता है!
निस्वन हवा में तैर जाता है!

रोशनी भी है कहीं?
मद्धिम सी लौ अभी बुझी नहीं,
नभ में एक तारा टिमटिमाता है!

अभी और सब्र करो!
जल नहीं, रहने दो!
अभी यह पुकार मत उठाओ!
अभी एक बूँद बाकी है!
सोतों में पहली सी धार प्रवहमान है!
कहीं कहीं मानसून उड़ते हैं!
और हरियाली भी दिखाई दे जाती है!
ऐसा नहीं है बन्धु!
सब कहीं सूखा हो!

गंध नहीं:
शक्ति नहीं:
तप नहीं:
त्याग नहीं:
कुछ नहीं--
न हो बन्धु! रहने दो
अभी यह पुकार मत उठाओ!
और कष्ट सहो।
फसलें यदि पीली हो रही हैं तो होने दो
बच्चे यदि प्यासे रो रहे हैं तो रोने दो
भट्टी सी धरती की छाती सुलगने दो
मन के अलावों में और आग जगने दो
कार्य का कारण सिर्फ इच्छा नहीं होती...!
फल के हेतु कृषक भूमि धूप में निरोता है
हर एक बदली यूँही नहीं बरस जाती है!
बल्कि समय होता है!








ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए / दुष्यंत कुमार


ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए

पर पाँवों किसी तरह से राहों पे तो आए


हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था

कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए


जैसे किसी बच्चे को खिलोने न मिले हों

फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए


चट्टानों से पाँवों को बचा कर नहीं चलते

सहमे हुए पाँवों से लिपट जाते हैं साए


यों पहले भी अपना—सा यहाँ कुछ तो नहीं था

अब और नज़ारे हमें लगते हैं पराए.








अपनी प्रेमिका से / दुष्यंत कुमार


मुझे स्वीकार हैं वे हवाएँ भी
जो तुम्हें शीत देतीं
और मुझे जलाती हैं
किन्तु
इन हवाओं को यह पता नहीं है
मुझमें ज्वालामुखी है
तुममें शीत का हिमालय है।

फूटा हूँ अनेक बार मैं,
पर तुम कभी नहीं पिघली हो,
अनेक अवसरों पर मेरी आकृतियाँ बदलीं
पर तुम्हारे माथे की शिकनें वैसी ही रहीं
तनी हुई.
तुम्हें ज़रूरत है उस हवा की
जो गर्म हो
और मुझे उसकी जो ठण्डी!

फिर भी मुझे स्वीकार है यह परिस्थिति
जो दुखाती है
फिर भी स्वागत है हर उस सीढ़ी का
जो मुझे नीचे, तुम्हें उपर ले जाती है
काश! इन हवाओं को यह सब पता होता।

तुम जो चारों ओर
बर्फ़ की ऊँचाइयाँ खड़ी किए बैठी हो
(लीन... समाधिस्थ)
भ्रम में हो।

अहम् है मुझमें भी
चारों ओर मैं भी दीवारें उठा सकता हूँ
लेकिन क्यों?
मुझे मालूम है
दीवारों को
मेरी आँच जा छुएगी कभी
और बर्फ़ पिघलेगी
पिघलेगी!

मैंने देखा है
(तुमने भी अनुभव किया होगा)
मैदानों में बहते हुए उन शान्त निर्झरों को
जो कभी बर्फ़ के बड़े-बड़े पर्वत थे
लेकिन जिन्हें सूरज की गर्मी समतल पर ले आई।

देखो ना!
मुझमें ही डूबा था सूर्य कभी,
सूर्योदय मुझमें ही होना है,
मेरी किरणों से भी बर्फ़ को पिघलना है,
इसीलिए कहता हूँ-
अकुलाती छाती से सट जाओ,
क्योंकि हमें मिलना है।







सत्य बतलाना / दुष्यंत कुमार


सत्य बतलाना
तुमने उन्हें क्यों नहीं रोका?
क्यों नहीं बताई राह?

क्या उनका किसी देशद्रोही से वादा था?
क्या उनकी आँखों में घृणा का इरादा था?
क्या उनके माथे पर द्वेष-भाव ज्यादा था?
क्या उनमें कोई ऐसा था जो कायर हो?

या उनके फटे वस्त्र तुमको भरमा गए?
पाँवों की बिवाई से तुम धोखा खा गए?
जो उनको ऐसा ग़लत रास्ता सुझा गए।
जो वे खता खा गए।
सत्य बतलाना तुमने, उन्हें क्यों नहीं रोका?
क्यों नहीं बताई राह?
वे जो हमसे पहले इन राहों पर आए थे,
वे जो पसीने से दूध से नहाए थे,
वे जो सचाई का झंडा उठाए थे,
वे जो लौटे तो पराजित कहाए थे,
क्या वे पराए थे?
सत्य बतलाना तुमने, उन्हें क्यों नहीं रोका?
क्यों नहीं बताई राह?








बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं / दुष्यंत कुमार


बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं,
और नदियों के किनारे घर बने हैं ।

चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर,
इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं ।

इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं,
जिस तरह टूटे हुए ये आइने हैं ।

आपके क़ालीन देखेंगे किसी दिन,
इस समय तो पाँव कीचड़ में सने हैं ।

जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में,
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं ।

अब तड़पती-सी ग़ज़ल कोई सुनाए,
हमसफ़र ऊँघे हुए हैं, अनमने हैं ।







चिंता / दुष्यंत कुमार


आजकल मैं सोचता हूँ साँपों से बचने के उपाय
रात और दिन
खाए जाती है यही हाय-हाय
कि यह रास्ता सीधा उस गहरी सुरंग से निकलता है
जिसमें से होकर कई पीढ़ियाँ गुज़र गईं
बेबस! असहाय!!
क्या मेरे सामने विकल्प नहीं है कोई
इसके सिवाय !
आजकल मैं सोचता हूँ...!






क्षमा / दुष्यंत कुमार

आह!
मेरा पाप-प्यासा तन
किसी अनजान, अनचाहे, अकथ-से बंधनों में
बँध गया चुपचाप
मेरा प्यार पावन
हो गया कितना अपावन आज!
आह! मन की ग्लानि का यह धूम्र
मेरी घुट रही आवाज़!
कैसे पी सका
विष से भरे वे घूँट...?
जँगली फूल सी सुकुमार औ’ निष्पाप
मेरी आत्मा पर बोझ बढ़ता जा रहा है प्राण!
मुझको त्राण दो...
दो...त्राण...."

और आगे कह सका कुछ भी न मैं
टूटे-सिसकते अश्रुभीगे बोल में
सब बह गए स्वर हिचकियों के साथ
औ’ अधूरी रह गई अपराध की वह बात
जो इक रात....।
बाक़ी रहे स्वप्न भी
मूक तलुओं में चिपककर रह गए।
और फिर
बाहें उठीं दो बिजलियों सी
नर्म तलुओं से सटा मुख-नम
आया वक्ष पर उद्भ्रान्त;
हल्की सी ‘टपाऽटप’ ध्वनि
सिसकियाँ
और फिर सब शांत....
नीरव.....शांत.......।






जाने किस—किसका ख़्याल आया है / दुष्यंत कुमार


जाने किस—किसका ख़्याल आया है

इस समंदर में उबाल आया है


एक बच्चा था हवा का झोंका

साफ़ पानी को खंगाल आया है


एक ढेला तो वहीं अटका था

एक तू और उछाल आया है


कल तो निकला था बहुत सज—धज के

आज लौटा तो निढाल आया है


ये नज़र है कि कोई मौसम है

ये सबा है कि वबाल आया है


इस अँधेरे में दिया रखना था

तू उजाले में बाल आया है


हमने सोचा था जवाब आएगा

एक बेहूदा सवाल आया है







कुंठा / दुष्यंत कुमार


मेरी कुंठा
रेशम के कीड़ों-सी
ताने-बाने बुनती,
तड़प तड़पकर
बाहर आने को सिर धुनती,
स्वर से
शब्दों से
भावों से
औ' वीणा से कहती-सुनती,
गर्भवती है
मेरी कुंठा –- कुँवारी कुंती!

बाहर आने दूँ
तो लोक-लाज मर्यादा
भीतर रहने दूँ
तो घुटन, सहन से ज़्यादा,
मेरा यह व्यक्तित्व
सिमटने पर आमादा।






पुनर्स्मरण / दुष्यंत कुमार


आह-सी धूल उड़ रही है आज
चाह-सा काफ़िला खड़ा है कहीं
और सामान सारा बेतरतीब
दर्द-सा बिन-बँधे पड़ा है कहीं
कष्ट-सा कुछ अटक गया होगा
मन-सा राहें भटक गया होगा
आज तारों तले बिचारे को
काटनी ही पड़ेगी सारी रात
x x x
बात पर आ गई है बात

स्वप्न थे तेरे प्यार के सब खेल
स्वप्न की कुछ नहीं बिसात कहीं
मैं सुबह जो गया बगीचे में
बदहवास होके जो नसीम बही
पात पर एक बूँद थी, ढलकी,
आँख मेरी मगर नहीं छलकी
हाँ, विदाई तमाम रात आई—
याद रह रह के’ कँपकँपाया गात
x x x
बात पर आ गई है बात



फिर कर लेने दो प्यार प्रिये / दुष्यंत कुमार


अब अंतर में अवसाद नहीं
चापल्य नहीं उन्माद नहीं
सूना-सूना सा जीवन है
कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं

तव स्वागत हित हिलता रहता
अंतरवीणा का तार प्रिये ..

इच्छाएँ मुझको लूट चुकी
आशाएं मुझसे छूट चुकी
सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ
मेरे हाथों से टूट चुकी

खो बैठा अपने हाथों ही
मैं अपना कोष अपार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये .



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